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शुक्रवार, दिसंबर 15, 2023

धुंध

परिचित

अपरिचित

व्यक्तित्व में धुंध है ।

समृद्ध

दीन 

पहनावे में धुंध है । 

सामाजिक 

असामाजिक 

सोच में धुंध है । 

एक क्षितिज से दूसरे क्षितिज तक 

धुंध ही धुंध है ।

धुंध ही अब जीवन है । 

बुधवार, अगस्त 11, 2021

बिटिया 

हमारी बेटी
एक साल की हो गई है।
बहुत कुछ सीख रही है,
बहुत कुछ सीखना अब भी बाकी है।
एक चीज है,
जो बहुत ज्यादा प्यारा लगता है,
उसका जोर से 'पापा' कहना ।
अक्सर पापा..पा.. पपप.. की माला जपती है,
लेकिन दुःख और तकलीफ में
सिर्फ माँ.. मा... मम्म.. ममम... की आवाज गूँजती है।
घुटनों के बल ऐसे चलती है जैसे उड़ रही हो ।
कौवे के साथ जुगलबंदी करती है
और डॉगी को डाँटती है।
गाड़ी में बैठती नहीं और
गोद में रहती नहीं,
हर वक़्त उसे खेलना है 
अपने पसंद के कोने में ,
चाहे वो दरवाजे का पायदान हो या फिर
किचन का कोई किनारा ।
खिलौने आस पास छीटकर
फिर भागती है।

मंगलवार, अगस्त 10, 2021

 मलवे का गीत

तेज बहती हवाएँ, लहराती जल तरंगे,
एक जहाज किनारे आ पहुँचा,
सैकड़ों लोग बच गए , 
सब रेत पर हीं हिम्मत हार गए ।
कुछ लोग डूबकर मर गए, कुछ काले घातक चट्टानों पर गिरकर, 
और अंत में एक आदमी ही बच सका ,
उन्हें एक असहाय बच्चा मिला ।

एक मैला सा नाविक, 
जहाज के मलवे से निकला,
और धीरे से अपने सिर को सीने पर रखा ।
उस विशाल निर्जन जगह में घूमना,
नाविक और लड़के को हमेशा पास-पास देखना,
इसमें एक विचित्र खुशी थी  ।

अकाल, बिमारी, भूख, प्यास में  ,
दो होकर भी एक थे ,
तब तक, जब नाविक पहले मर नहीं गया और  उसे यह समझ नहीं आ गया कि 
उसका काम पूरा हो चुका है।
उसने विश्वासी लड़के से कहा ,
"इस वीरान जगह पर इसे मेरे वास्ते ले लो"
और उस बच्चे को चूमते हुए मर गया।

थके मांदे घने जंगल और कीचड़नुमा रास्तों से,
दोनों प्रत्येक रात आग से गर्माहट पाने के लिए जाते थे
जब तक कैप्टन यह न कहे
"है दयालू नाविक
खुद को बचाने के लिए अब चले जाओ
और इस लड़के को छोड़ दो"

बच्चा लौ के पास झपकी ले रहा था
" कैप्टन , उसे आराम करने दो,
जब तक वह सो नहीं जाता, 
और भगवान अपने तरीके से जब तक हमें नहीं बताते कि क्या करना ज्यादा सही है!"
उसने सफेद राख की ढेर को देखा,
बिना कारण उसने बच्चे को स्पर्श किया;
उसने उसे अर्धनिद्रा में वहाँ नहीं छोड़ा,
वह फिर दुबारा कभी नही जगा ।

(नोट : चार्ल्स डिकेंस की कविता 'सॉंग ऑफ द रेक ' का हिन्दी अनुवाद, मूल कविता नीचे है । )


The Song of the Wreck

BY CHARLES DICKENS

The wind blew high, the waters raved,

A ship drove on the land,

A hundred human creatures saved

Kneel’d down upon the sand.

Three-score were drown’d, three-score were thrown

Upon the black rocks wild,

And thus among them, left alone,

They found one helpless child.

 

A seaman rough, to shipwreck bred,

Stood out from all the rest,

And gently laid the lonely head

Upon his honest breast.

And travelling o’er the desert wide

It was a solemn joy,

To see them, ever side by side,

The sailor and the boy.

 

In famine, sickness, hunger, thirst,

The two were still but one,

Until the strong man droop’d the first

And felt his labours done.

Then to a trusty friend he spake,

“Across the desert wide,

O take this poor boy for my sake!”

And kiss’d the child and died.

  

Toiling along in weary plight

Through heavy jungle, mire,

These two came later every night

To warm them at the fire.

Until the captain said one day,

“O seaman good and kind,

To save thyself now come away,

And leave the boy behind!”

 

The child was slumbering near the blaze:

“O captain, let him rest

Until it sinks, when God’s own ways

Shall teach us what is best!”

They watch’d the whiten’d ashy heap,

They touch’d the child in vain;

They did not leave him there asleep,

He never woke again.

 


सोमवार, जुलाई 05, 2021

 

पताका

वह क्या है जो हवा में लहरा रहा है?

सिर्फ एक कपड़े का टुकड़ा ही तो है

जो एक राष्ट्र को घुटनों पर ला सकता है।

 

वह क्या है जो खम्बे से लहरा रहा है?

सिर्फ एक कपड़े का टुकड़ा ही तो है

जो आदमी के साहस का प्रतीक है ।

 

वह क्या है जो छावनी के ऊपर है ?

सिर्फ एक कपड़े का टुकड़ा ही तो है

जो एक डरपोक को भी हिम्मत दे रहा है ।

 

वह क्या है जो खेतों से होते हुए उड़ रहा है ?

सिर्फ एक कपड़े का टुकड़ा ही तो है

जो बहते हुए खून को भी रोक देगा ।

 

मैं ऐसे कपड़े के टुकड़े को कैसे रख सकता हूँ ?

मेरे मित्र, मुझे तो सिर्फ एक झण्डा चाहिए ।

अंत तक, अपने अंतःकरण को बचाकर रखने के लिए । 

( John Agard की कविता 'फ्लैग' का हिन्दी अनुवाद, मूल कविता निम्न रूप में है । )



गुरुवार, अप्रैल 08, 2021

एक और दिवस

भाइयों और बहनों ! 

शब्द मात्र नहीं ,

गूँज है हवाओं में 

आओ मनाते हैं योग दिवस।

भूल जाओ,

उस बात पर, ध्यान मत दो 

जहाँ एक किसान पेड़ से लटक रहा है, 

वो शायद मरा नहीं है, 

ध्यान कर रहा है । 

भाइयों और बहनों !

आओ शुद्ध करे मन को ,

आँखों को मूँद लो दो उँगलियों से 

आहिस्ता-आहिस्ता सांस लो,

फसल बाढ़ से खराब हो गई, 

ये ध्यान में न आए 

शांति और गहन शांति 

योगमय वातावरण में 

ज़ोर-ज़ोर से हँसो 

हा हा हा हा हा हा  

एक बार और 

हा हा हा हा हा हा  । 

योगाभ्यास पर बैठा एक पुरुष बताता है,  

कल एक किसान बाढ़ से 

अपने जान से अजीज खेत को बचाते-बचाते योग सीख गया 

और बाढ़ का पानी फसल पर हावी हो गया । 

यह सब देख 

बेचारा किसान योगी दम तोड़ दिया, 

शायद सदमें से और हृदय गति रुकने से 

खैर, भाइयों और बहनों 

गहरी साँस ले और धीरे-धीरे छोड़े ।

मन का विकार दूर करें ,

चंद मिनट का शोक करेंगे 

हमारे किसान भाई के लिए, 

फिर योगाभ्यास में लौटेंगे  । 

रंग बिरंगी योग मैट का मोल ज्यादा है 

और किसान का मोल योग मैट जैसा 

उसे भूल जाओ, 

उस पर बैठ जाओ 

और योग करो, भाइयों और बहनों । 

एक बार फिर हँसेंगे

हा हा हा... हा हा हा । 

सोमवार, अप्रैल 05, 2021

राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय के निम्न वेब पोर्टल 

http://e-mahashabdkosh.rb-aai.in/Default2.aspx  

के माध्यम से प्रशासनिक और तकनीकी शब्दों को ढूँढने में मदद मिलेगी, भावी अनुवादकों और हिन्दी अधिकारियों के लिए e-mahashabdkosh वेब पोर्टल काफी उपयोगी है। 

शुक्रवार, मार्च 26, 2021

 उसकी आँखों से


कुछ अनदेखा नहीं
अपने बच्चागाड़ी में बैठकर
छोटे, बड़े, काले, गोरे, हर नस्ल के कुत्तों को देखना
उसे अपनी आवाज में बुलाना या भगाना ।
बच्चों का खेलना
उसका साईकल चलाना ।
घने और छायादार पेड़ों को गौर से निहारना
लहलहाते पत्तों को टकटकी लगाकर देखना ।
पक्षियों का कलरव भी उसे आतुर करती है।
रास्ते पर धूप के कारण बने अलग अलग आकार 
चाहे वो मम्मी पापा के शरीर के हो
या फिर छोटे-छोटे पेड़ों की
या किसी लैंप पोस्ट की
या फिर डस्टबीन की
या कोई स्कूटर की
हर आकृति उसके लिए अनोखा और अजूबा है।
रास्ते पर पड़े सूखे पत्तों से लेकर
पेड़ों की लंबाई भी उसे काफी भाता है।
पार्क में बच्चों का खेलना
बड़े बुजुर्गों का पुचकारना 
हमउम्र के बच्चों को घूरना
सरकारी आवासीय कैम्पस से 
वह काफी वाकिफ हो चुकी 
इस छोटे से उम्र में ।

गुरुवार, मार्च 25, 2021

 हमारी गुड़िया


हँस दे तू
कुछ कह दे तू
कुछ ऐसे
अ ब द पा अ द म
साफ नहीं बस जैसे तैसे ।
कभी हाथ मेरा पकड़ती तू
कभी अकड़ कर बड़बड़ करती तू ।
माँ कहती पर न समझती तू
मत कर बेटा
अच्छी है तू
प्यारी और न्यारी है तू
पर नहीं सुनती और फिर हँसकर
मनमानी करती है तू ।
दिनभर तू थकाती हमको
पर नहीं सोती है तू ।
माँ फिर शिकायत करती
और पापा को देखकर हँसती है तू ।
कभी पेट के बल खेलती कभी कपड़े चबाती तू
हम समझाते और उठाकर गोद में लेते
फिर मुँह बनाती तू ।
माँ को देख किचन में फिर ओ ओ कर बुलाती तू
शाम को जब पापा लौटते
पापा को देख
हँसती और इठलाती तू
तू नन्ही सी गुड़िया है
हमारी गुड़िया है।
बिटिया 

उठती है सूरज के किरणों के साथ
हाथ हिलाती है
पैर फैलाती है
फिर पलटती है
और सुबह सुबह
हमें हँसाती है।
जैसे तैसे बारी बारी से पापा मम्मी काम निपटाते हैं।
सुबह की मालिश के बाद
सो जाती है।
उठती है फिर कुछ खाती है
खाने के लिए
पापा को खूब नचाती है।
माँ की गोद से लटकती है
और नाच देख मंद मंद मुस्काती है।
प्यार से नहाती है
पर कपड़े नहीं पहनने के लिए बहुत हाथ पैर हिलाती है।
मुँह में कुछ मिल जाए चबाने को
फिर बेहद खुश हो जाती है।
पर, पल भर में जोर जोर से चिल्लाती  है।
खेल खिलौना 

वो बैठी है
मेरे गोद में । 
उसे खेलना है
मेरे उँगलियों से। 
मैंने अंगूठे को हिलाया
उसे वो कसकर पकड़ ली ।
कनिष्ठा को देख हँस पड़ी
और अनामिका को अपने नन्हें मुट्ठी से जकड़ ली। 
मुझे देखकर
तर्जनी को हल्के से पकड़ी
फिर जोर से हँसी
और तभी मध्यमा की ओर झपटी ।
मुँह की लार ग्रंथिओं से भिगो दी
और फिर गोद से उछल पड़ी ।

शुक्रवार, मई 10, 2019

‘अहिंसा’ की तस्वीर


अहिंसा की तस्वीर
वक़्त है कुछ करने की
कहते तो सभी हैं,
अफसोस ! ज़िम्मेदारी आज
किसी कुर्सी के चार पायदानों की तरह मरी पड़ी है,
मगर खड़ी है चंद विश्वसनीय कंधों पर ।
एक कमरे की ये दास्तान
किसी असहाय व्यक्ति
से जुड़ी है ।
शासन और शासक के चंद चापलूस
किया करते हैं
दिन प्रतिदिन रोजगार का बंदोबस्त ।
म-हा-त्मा तस्वीर से देखते है सारा तमाशा !
अहिंसा को जहाँ उसने कभी
पीठ पीछे देखा था,
मगर आज इसे वो नाक पर देखते हैं ।
उनकी आत्मा जीवित होती
बशर्ते......... ।
हिंस..... हिंसा...... हिंस-आ.... हिं.....
से गूँज उठता है सारा
अतीत-
अहिंसा की तस्वीर
अब, वीरता की तकदीर
बनकर रह जाती है
और अहिंसा की पराजय
हिंसा का तमाचा
खाकर
टंगी की टंगी रह जाती है ।

सोमवार, मार्च 18, 2019

लाइक, कमेंट्स और शेयर...

अरे यार रजिस्ट्रेशन किए की नहीं?
एक दोस्त का सवाल
दूसरे को खड़ा कर देता है
वाट्सएप, फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम के इर्द गिर्द।
फिर शुरू होता है
लाइक, कमेंट्स और शेयर का सिलसिला।
यार, मैंने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा
पर अगले ने अभी तक
अकसेप्ट नहीं किया ।
कोई बात नहीं,
किसी और को भेज!
पाँच सौ से ज्यादा फ्रेंड्स है मेरे लिस्ट में।
और तुम्हारे....?
नहीं मालूम।
ये सब भी है!
जन्मदिन मुबारक हो।
सालगिरह मुबारक हो।
रिप।
बधाई।
नाइस।
....शेयर्ड हिज/हर लोकेसन।
....ट्रावेलिंग टू...
फीलिंग सैड/हैप्पी..इत्यादि।
क्या बकवास है,
अब तक सिर्फ दो ही लाइक मिले?
देखो इधर।
ये क्या पोस्ट लिखा है!
छोड़ो यार,
कुछ खास नहीं।
कचरा है सब।
क्या बोल रहे हो!
सच बोल रहा हूँ।
इसने सब छीन लिया!
सच्ची अभिव्यक्ति, अपनत्व, सादगी इत्यादि।
सच कह रहे हो मित्र !
कल मैंने कुछ टिप्पणी की अपने वाल पर
और आज मैं देशद्रोही हो गया ।
समझ नहीं पा रहा
ये कैसे हुआ ।
यहाँ यही सब होता रहता है ।
फिक्र मत करो ।
साइन आऊट करो इन सबसे से
और भूलकर भी साइन इन मत करना ।
वरना अंजाम बहुत बुरा होगा ।

तुम्हारे साथ

तुम्हारे साथ
शहर को शहर पाता हूँ
जो ख़्वाब अधूरे थे उसे पूरा पाता हूँ।
समुद्र में उठती लहरें,
एक अलग वेग में पाता हूँ।
रेत पर बिखरे सपनों को
शहर के रंग बिरंगे लोगों से
भरा पाता हूँ।
हवा में रस्सी पर खड़ी
वह लड़की शहर को अपना रोमांचक खेल दिखा रही है।
बिक रहे खिलौने से शहर को
सुन पाता हूँ।
तुम्हारा हाथ पकड़कर
रेत में भी खुद को तेज पाता हूँ।
शहर की सड़कों पर तुम्हारे साथ,
मानो वर्षों से इसे जानता हूँ।
तुम्हारे साथ..
शहर एक उत्सव से कम नहीं।
लोग कितने परिचित से जान पड़ते हैं।
बटरफ्लाई ब्रिज से गुजरना ऐसा एहसास दिलाता है,जैसे
हम तितली हैं शहर के।
तुम्हारे साथ ..
यह शहर उतना ही मधुर है
जितना
ये शब्द 'तमिल'...
तुम्हारे साथ...
शहर को एक किताब सा पाता हूँ।
जिसे हर रोज पढ़ता हूँ
और हर बार एक नया पन्ना जुड़ जाता है।
तुम्हारे साथ ...
शहर को नक्शे पर नहीं,
तुम्हारी आँखों में पाता हूँ।
तुम्हारे साथ..

समय बदल रहा है।

समय बदल रहा है।
आकाश का रंग बदल रहा है।
धरती का आकार बदल रहा है।
मानवता का रंग बदल रहा है,
बस नहीं बदल रहा तो
मैं और तुम।
चिड़ियाँ जिस डाल पर बैठा करती थी,
वह डाल बदल रहा है
फूलों का रंग बदल रहा है।
हरियाली बदल रही है।
बहती नदी बदल रही है,
तालाब और झीलें बदल रही है।
बस नहीं बदल रहा तो मिट्टी का रंग।
समाज बदल रहा है,
रिश्ते बदल रहे हैं,
अपनो से अपनों की उम्मीदें बदल रही है,
बस नहीं बदल रहा तो सोचने का ढंग।
पर्वतों का आकार बदल रहा है।
वर्षा की गति बदल रही है,
दिन का ताप बदल रहा है।
पेड़ों की छाँव बदल रही है।
नहीं बदल रहा तो उसमें भीगने की चाह,
उस ताप से जलने का भय।
अंधा-धुंध सभी भाग रहे है,
अदृश्य अंधेरे की ओर,
जहाँ मिलने वाला कुछ नहीं,
खोने के सिवाय।
पर नहीं बदलेंगे लोग।
वजह है बस यही-
बस स्वार्थ नहीं बदल रहा,
बदल रहे हैं स्वार्थी !
इसी का डर था ।

हर रोज

हर रोज
मैं मिलता हूँ एक अजनबी से
जो मेरे अंदर है
जो मुझे सावधान करता है
किसी अजनबी से मिलने के लिए,
जो मुझे बदल सकता है !
मेरे शरीर पर जो कपड़े हैं उसे
जो घड़ी है
जो चप्पल/जूते हैं
जो कड़ा है
आंखों पर जो चश्में है
गले में जो आस्था की हार है
हर एक चीज को..
लेकिन!
फिर मैं सोचता हूँ
इस अजनबी से मैं निपट लूँगा,
लेकिन उस अजनबी का
क्या जो बाहर घूम रहा है।
जिसकी नज़र हर वक़्त मुझपर टिकी रहती है।

मंच से

काश !
मैं विवेकानंद को पढ़ता तो मानवीय संवेदनाओं को समझ पाता।
समाज में व्याप्त कुरीतियों को देख पाता।
पर ऐसा हो न सका।
बेलूर मठ भी जाना नहीं हुआ।
न ही चेन्नई का विवेकानंद हाऊस देखना हुआ।
काश!
मैं टैगोर को पढ़ता
तो जीवन से रु-ब-रु हो पाता।
जोड़ासांकू ठाकुर बाड़ी नहीं देखा मैंने।
प्रकृति का सान्निध्य मिल पाता।
मंच से
प्रवाहित ध्वनि ने मुझे खूब झकझोरा।
कुर्सी पर बैठे बैठे मैं
इतना भीतर धँस गया कि
क्या कहूँ!
फिर धीरे से उठा और
हल्के से बुदबुदाया।
अच्छा भाषण था।

मैं उस जगह खड़ा हूँ

मैं उस जगह खड़ा हूँ
जहाँ से मैं देख पा रहा हूँ
एक मिडिल क्लास का संघर्ष
अपने ख्वाहिशों के लिए
बिलखता हुआ जी रहा।
कभी अपने बच्चों के बहाने,
तो कभी अपने अर्धांगिनी के वास्ते।
कभी उस बूढ़े माता-पिता के लिए
जो कभी हवाई यात्रा का सुख नहीं भोग सके।
कभी किसी अच्छे रेस्तरां में बैठकर व्यंजनों का लुत्फ नहीं उठाए।
जिसने कभी महंगे कोर्ट पैंट में सेल्फी न लिया अपनो के साथ।
जिसने कभी 2बी एच के फ्लैट का सुख ना भोगा।
हर रोज अखबार का विज्ञापन देख,जो संतोष कर लेता है।
पर फिर भी हार नहीं मानता।
लेकिन वे अपने ख्वाहिशों से हर रोज हारते हैं।

बुधवार, फ़रवरी 20, 2013

ये क्या हो गया !

ये क्या हो गया !
तन पर कपडे होने के बावजूद भी
एक तरह का नंगापन है,
मुँह में जबड़े हैं ,
पर कोंई ऊँचा बोलता नहीं ,
इस स्वाधीन देश में सभी जबड़ों के गूँगे हो गए हैं ।

ये क्या हो गया !

घूरते हैं एक दूसरे को,
पर मारता कोई नहीं है,
जोर से कहता है मगर डाँटता नहीं है,
आँखों में आँसू है पर रोता नहीं है ।

ये क्या हो गया !

बर्बाद करने की धमकी है सिर्फ,
पर करता नहीं है ,
नीचा दिखाने को कहता ,है
मगर दिखाता नहीं ,
सभी स्तब्ध है मगर ,
फिर भी कोइ कहता नहीं ।

ये क्या हो गया !

एक कमरे से दूसरे कमरे में फासले में है ,
मगर सूझता नहीं,
बात बदले की हो रही है किसी एक में,
पर कोइ बताता नहीं,
दीवार कह नहीं सकता
कमरे की चीजें बेजुबान ,है
केवल आप और मैं
जुबानधारी है
मगर उसका भी क्या फायदा ।

ये क्या हो गया !

कंठ को पानी की बूँद चाहिए
अगर कोई सोचता नहीं ।
चारो तरफ भीड़ है
खचाखच भीड़
जो किसी काम की नहीं। 
देह का छिलना बाकी है
इस भीड़ में
और शायद कुछ नहीं ।

ये क्या हो गया !

इस सभ्य नगर में
कोई बचा नहीं ।
ज्ञानेंद्रियाँ सक्रिय है
मगर उसमे एक चुप्पी है
एक ऐसी चुप्पी
जिसका टूटना बाकी है ।



शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

रोजगार और बेरोजगार...

रोजगार और बेरोजगार...
दो शब्दों की जिंदगी,
एक में फटे जूतें में भी रास्ते की धुल प्यारी लगती थी,
जब मीलों पैदल चलना पड़ता...
लेकिन दूसरे में रास्ते पर चलना,
जैसे काफी समय का अंतर...
पहले ने, सिक्कों और कागज़ के नोटों पर लिखे
बहुत सारे चीजों पर ध्यान बटाया,
लेकिन दूसरे ने केवल
बड़े और छोटे का भेद...
ऐसा क्यों...?
एक सवाल खुद से...!
उत्तर बहुत सरल है,
क्योंकि सारा फसाद इस 'बे' ने ही खड़ा किया है...
चरित्र को कठघरे में ला खड़ा कर दिया |
पहले सिर्फ कलम की ताकत थी,
अब नोट को देख कलम भी कुछ नहीं बोलता...
बेरोजगारी की पुरानी बैसाखी टूट गई,
रोजगार की चिकनी जमीन पर,
हर ओर नोटों और उस पर टिके निरीह लोगों की पुकार गूंजती रही,
लेकिन
दोनों एक दूसरे की बातों को
कभी मान नहीं सकता...

सोमवार, दिसंबर 26, 2011

उसने मना नहीं किया...

उसने मना नहीं किया...
जब चाहा फूलों से खुशबू,
उसने मना नहीं किया...
कोमल पत्तियों को छूने की चाह,
उसने मना नहीं किया,
हर बार
हर बार
बिना किसी निमंत्रण के...
मुझे और मेरे आग्रह को ठोकर नहीं लगने दिया...
दिन के उजाले ने कभी अपनी रौशनी
देने से मना नहीं किया...
रात ने भी अँधेरे में परछाई बनने से मना नहीं किया...
सुबह की पहली किरण को भी फूटने से
किसी ने मना नहीं किया...
रात को सुनसान मैदान में
ओस की बूंदों को गिरने से
किसी ने मना नहीं किया...
बारिश में बड़े बड़े बूंदों ने
तन को भिगोया
उस वक़्त भी किसी ने मना नहीं किया...
जब कड़े धुप ने, इस मन को जलाया तब भी किसी ने मना नहीं किया...
सोया रहा जब अकेला कमरे में
उस अकेलेपन पर भी कोई
कुछ नहीं बोला...
बच्चे के मुस्कुराने पर
फिजाओं में फैलते हंसी पर किसी ने मना नहीं किया...
हर बार
हर बार
मैंने आजादी महसूस की
और उस आजादी पर भी किसी ने मना नहीं किया...

ख़ामोशी कैसी है ?

ख़ामोशी कैसी है ?
जैसे घने कुहासे से घिरी ट्रेन की पटरियाँ हो
और उसे देखता परेशां मुसाफिर...
यूँ कहें तो कड़ी ठंडक में कपकपाते होंटों की वो अद्भुत ध्वनि |
शांत और विरान जंगल में अदृश्य कीट-पतंगों की आवाज़...
किताबों के पन्नो की फर्रफराहट ,
कलम की नोख से स्याही की वो सुगबुगाहट...
कुछ ऐसा भी महसूस होता है |
बंद मुँह के खुलने से, होटों की बुदबुदाहट...
कुछ ऐसा भी...
पेड़ों से गिरते पत्तों की वो नि:शब्द आवाज़,
हवा के साथ बहने की सरसराहट..कुछ ऐसा हीं...

मुझे इंतजार है...

मुझे इंतजार है...उस मंजर का जहाँ हर शक्स के पास हंसने की वजह हो...
मुझे नकली हंसी वाले लोगों को नहीं देखना,
अब तो बिलकुल नहीं...क्योंकि,
समय काफी बीत गया,
मेरी मांग बहुत छोटी है,
मगर न जाने क्यों यह लोगों को बड़ी लगती है...
इससे मैं अपने इंतजार का गला नहीं घोंट सकता..
हरगिज नहीं,हर गली,
नुक्कड़ और मोहल्ले में उस शक्स को नहीं देखना,
जो नफरत को दबा कर,
हंसने का ढोंग करता हो...
सामने अपनापन और पीठ पीछे शत्रुता से दो सीढ़ी ऊपर उठकर
न दिखने का नाटक करता है,
इस मंच को अब नष्ट करना होगा,
और तभी यह इंतजार ख़त्म हो पायेगा...

बुधवार, अगस्त 31, 2011

सुशासन की राह में आने वाली चुनौतियों से निपटने में नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की भूमिका (Role of CAG in Meeting Challenges of Good Governance)

एक अच्छे सरकार के लिए यह जरूरी होता है की उसके कार्य-सूची का हर एक पहलु उन्दा किस्म का हो | सवाल है भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की सुशासन से जुडी चुनौतियाँ जो हर बैठक में उठाई जाती है | यह भारत की सर्वोच्च लेखापरीक्षा संस्था के रूप में १५० सालों से अस्तित्व में है | श्री विनोद राय ने दिनांक 7 जनवरी 2008 को भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के रूप में कार्य भार ग्रहण किया और तीन सालों से वे इस जिम्मेदारी को निभा रहें है | नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है | जैसा कि अनुच्छेद १५१ के अनुसार नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा लेखा परीक्षा राष्ट्रपति या राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है |अच्छे शासन हेतु चुनौतियाँ निम्नलिखित है -१. लेखा परीक्षा सम्बंधित त्रुटियों को दूर करना |
२. विनियोजन सम्बंधित लेख और वित्तीय लेखों (जैसे- वित्तीय अनियमितता, घाटा, वित्तीय चोरी, खर्चों का नुकशान और बचत एवं दिन पर दिन हो रहे राष्ट्रीय घोटाले जैसे- कामन्वेल्थ गेम्स) में मौजूद अशुद्धियों को सही माध्यम के सहारे दूर करना |
३. समस्त संगठनों में किये गए लेखा परीक्षा की जांच द्वारा प्राप्त निरीक्षण प्रतिवेदनों की सही तरीके से जांच | इतनी बड़ी जिम्मेदारी का पालन नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा किया जाता है जो की सराहनिए है |
४. इसे भारतीय लेखा परीक्षा एवं लेखा सेवा का मुखिया के रूप में जाना जाता है जिसके ऊपर ६०,००० के आस-पास कर्मचारियों के देखभाल की जिम्मेदारी होती है |
५. संघ और राज्य का लेखा विवरण भी कैग को रखना पड़ता है | ६. सरकारी कर्मचारियों द्वारा जो आवेदन जमा किये जाते हैं उसे जाँच करने का कार्य भार कैग को सौंपा जाता है | साथ ही नियम-कानून के साथ उस आवेदन का निर्वहन हुआ है कि नहीं ये भी देखना पड़ता है | इसके अलावे विधानसभा की और से यह देखने की जिम्मेदारी भी सौंपी जाती है की सरकारी नियमानुसार उस आवेदन का कार्य हो रहा है या नहीं |
८. राजस्व की लेखा परीक्षा में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है | आयकर, केन्द्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क, बिक्री कर आदि के रूप में कर निर्धारण की लेखा परीक्षा कैग द्वारा ही संभव हो पाता है | वाह्य कर के कामकाज में अधिनियम / नियम के खामियों की ओर इशारा कर बेहतर कर प्रशासन की बुनियाद डाली जा सकती है |
९. चार्टर्ड एकाउंटेंट्स सरकारी कंपनियों के वार्षिक लेखा को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक हैं | वाणिज्यिक उद्यमों की लेखा परीक्षा भी कैग के दाएरे में आते है |
१०. कंपनी अधिनियम १९५६ की धारा ६१९ के अंतर्गत सरकार कंपनी, सीएजी द्वारा नियुक्त सहित कंपनियों के खातों की लेखा परीक्षा भी आयोजित करता है जिसके जरिये सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की उत्तम कार्य - प्रणाली तैयार हो सके |११. शिक्षा और विकास के क्षेत्र से जुड़े अनेकों स्वायत्त निकायों की लेखा परीक्षा कैग द्वारा की जाती है| ताकि उस विशेष निकाय के त्रुटियों को दूर किया जा सके |
१२. छह सांविधिक निगमों की लेखा परीक्षा कैग द्वारा आयोजित की जाती है - जिसमे भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण, दामोदर घाटी निगम, राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण, अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण, भारतीय खाद्य निगम और केन्द्रीय भण्डारण निगम इत्यादि शामिल है | कैग की इन निगमों में अतुलनिए योगदान है |
१३. सामाजिक - आर्थिक कार्यक्रमों (जैसे- सर्वशिक्षा अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, मध्याह्न भोजन योजना, त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम एवं प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना) में लेखा परीक्षाओं की अहम् भूमिका रही है लेकिन चुनौती आगामी दिनों में भी इसी मान दंडों को आधार बनाते हुए उसे पूरा करने में है |
१४. यह सार्वजनिक क्षेत्रों जैसे - उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, अपशिष्ट प्रबंधन, राज्यों में पुलिस आधुनिकीकरण योजना, सीएजी सरकारी विभागों, कार्यालयों और एजेंसियों की लेखा परीक्षा करके काफी प्रगति पर है |
१५. संघ और राज्य दोनों लेखा परीक्षा कैग के नियंत्रण में रहते है जहाँ सिविल, वाणिज्यिक और प्राप्तियाँ सम्बंधित दस्तावेज जांच किये जाते है |
उपर्युक्त तमाम कथनों का पालन नियंत्रक और महालेखापरीक्षक द्वारा किया जाता है जो अपने आप में एक अनूठा योगदान है | यह महज चुनौती नहीं है बल्कि सुशासन प्रणाली का रक्षा कवच है | नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा जितने कार्यों का वहन किया जाता है उसका एक मात्र सशक्त उद्देश्य है भारत की सरकार को लेखा परीक्षा के आधार पर पूर्ण रूप से सक्षम और त्रुटीहीन बनाना | बात है हमारे उस संविधान की जो इतने मानदंडो पर टिका हुआ है की उसे बरक़रार रखने के लिए इस सर्वोच्च लेखापरीक्षा संस्था को अपना उन्नत कार्य दिखाना होता है | कामनवेल्थ खेलों में हुए घोटाले ने कैग के ऊपर सवालिया निशान जरूर लगा दिया मगर यह समझना बिलकुल गलत होगा की कैग ने आँखें मूँद ली है | वह पूरे प्रयास में है की आखिर गलती कहाँ है | अपने सीमाओं (कार्यकारिणी के संयम, उसके बजटीय स्वायत्तता, कर्मचारियों पर नियंत्रण, संघ के वित्त मंत्रालय और लेखांकन कर्तव्यों से निपटने के लिए राज्य सरकार के वित्त विभाग के लिए अप्रत्यक्ष रूप से जवाबदेही, संसद से शासकीय संचालन में अपने बचाव में सीधी पहुँच की कमी ) के बावजूद भी कैग की भूमिका में वो कमी नहीं दिखी जिससे यह लगे की महालेखापरीक्षक अपने जिम्मेदारियों को सही से नहीं निभा रहे हैं | कभी-कभी कोई लेखा परीक्षक जब अहम् नियमों एवं विनियमों के अभाव में कुछ ऐसी गलतियाँ कर बैठते हैं जो आगे चलकर कार्य प्रणाली के लिए सिर दर्द बनकर रह जाता है तो ऐसे गलतियों का निवारण सही प्रशिक्षण के माध्यम से हीं संभव है | संसद स्तर पर जब कोई पूछताछ कैग से की जाती है तो अप्रत्यक्ष जवाबदेही के कारण सही मामले का खुलासा नहीं हो पाता है | पूरे देश के तमाम सरकारी, गैर सरकारी, सरकारी उपक्रमों, राज्य स्तर पर स्थापित विभागों एवं अन्य कई संस्थाओं और विभागों में लेखा परीक्षा की त्रुटियों पर कैग की हमेशा नज़र रहती है | जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव वार्षिक निष्पादन रिपोर्ट में देखने को मिलती है | राज्य एवं केंद्र सरकार द्वार हर बड़े आयोजन पर महालेखापरीक्षक द्वारा रिपोर्ट बनाई जाती है जो एक सुशासन का ढांचा तैयार करती है | आज के इस आधुनिक दौर में भी कैग के समक्ष चुनौतियों की कमी नहीं है | दिनों दिन भ्रष्टाचार का क्षेत्र फैलता जा रहा है और कैग के लिए उपयुक्त कार्य-प्रणाली पर चलना कठिन हो गया है कि अराजकता के बाद भी महालेखापरीक्षक स्वतंत्रता, विश्वसनीयता, पारदर्शिता, विषयनिष्ठा, व्यावसायिकता, सकारात्मकता और सत्यनिष्ठा पर कायम है | सरकारी लेखा मानकों सलाहकार बोर्ड (गसब) एक ऐसा माध्यम है जो अपने अनुपम मानक कार्यों और सलाहकारी बैठकों से निरंतर अपने खामियों से मुक्त होने के उपाय ढूंढता रहता है | निष्पादन, वित्तीय और अनुपालन लेखा परीक्षा कैग की देन है जो हर चुनौती का सामना काफी सजगता और सरलता से करता है |

रविवार, अगस्त 14, 2011

हिंदी की प्रमुख बोलियाँ और उनके बीच अंतर्संबंध

हिंदी की प्रमुख बोलियों में मारवाड़ी, जयपुरी या ढूँढाडी, मेवाती, मालवी, कौरवी, हरयाणी, दक्खिनी, ब्रजभाषा, बुन्देली, कन्नौजी, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मगही, मैथिलि, कुमाउनी, गढ़वाली आदि है | हिंदी की प्रमुख बोलियों में मारवाड़ी, कौरवी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, अवधी शामिल है| हिंदी की पांच उपभाषाएँ है- पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी हिंदी और पहाड़ी हिंदी| बिहारी की चार प्रमुख बोलियाँ हैं-भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका | इनका एक वर्ग मानकर उन्हें बिहारी नाम दिया गया है| पहाड़ी हिंदी के अंतर्गत कुमाउनी और गढ़वाली है| इन बोलियों पर मूलतः तिब्बत, चीनी और खास जाती की अनार्य भाषाओं का प्रभाव रहा है|पश्चिमी हिंदी का ही एक रूप दक्खिनी हिंदी व्याप्त है | पूर्वी हिंदी के अंतर्गत तीन बोलियाँ है -अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी |

बोलियों में अंतर्संबंध-

    हिंदी की बोलियाँ होने के कारण इनमे हिंदी के से सामान्य लक्षण सर्वाधिक है | सभी संस्कृत की संतान है और सब में तद्भव शब्दों की प्रधानता है | ये तद्भव शब्द उन्हें संस्कृत से मिले हैं| विदेशी शब्द भी लगभग सबने लगभग एक हीं ढंग के अपनाएं हैं | शब्दावली में जो अंतर है वह अधिकांशतः देशज शब्दों में है| बिहार में जनजातियाँ अधिक है, इसलिए बिहारी बोलियों में देशज शब्द कुछ अधिक आ गए हैं | छत्तीसगढ़ी को प्रभावित करने वाले आदिवासी अलग जनजाति के हैं, भोजपुरी पर भिन्न जनजातियों के शब्द आये हैं| किन्ही बोलियों में देशज शब्द बहुत कम ही है | जहाँ देशज प्रभाव कुछ अधिक है वहां कतिपय व्याकरणिक प्रयोगों पर थोडा प्रभाव पड़ा है | पहाड़ी हिंदी पर पड़ने वाले प्रभाव मूलतः भिन्न है | लिंग की समस्या सब बोलियों में है, यहाँ तक कि यहाँ तक कि धुर पूरब में भी बड़ा थार, बड़ी थरिया, ललका घोडा, ललकी घोड़ी, मेरी विनती आदि रूप हैं | यद्यपि पास कि बंगला भाषा में यह समस्या नहीं है | सैंकड़ों हज़ारों संज्ञा शब्द और क्रियापद समान हैं| सर्वनामों में तो अस्चार्यजनक समानता है - मई, हम, तू, तुम, उ, वु, वा, वह, वोह में उच्चारणगत अंतर है, ऐसे, ही, ई, ए, एह, येह, यह में भी | को कौन, जो, सो, कोई, कोऊ, कुछ, किछु, कुछु में उच्चारण भेद भले हीं हो, परन्तु इनकी बोधगम्यता में कोई अंतर नहीं पड़ता |

    भाषाविज्ञानियों ने हिंदी की १८ बोलियों के पाँच वर्ग निश्चित किये हैं | एक-एक वर्ग की बोलियाँ आपस में गुँथी हुई हैं |

पहाड़ी-कुमाउनी, गढ़वाली
राजस्थानी-मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी
पश्चिमी हिंदी-दक्खिनी, हरयाणी, कौरवी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली
पूर्वी हिंदी- छत्तीसगढ़ी, बघेली, अवधी
बिहारी हिंदी- मैथिलि, मगही, भोजपुरी

        हिंदी की पहाड़ी उपभाषा की दो बोलियाँ हैं| गढ़वाली और कुमौनी जिनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है | गढ़वाल और कुमाऊँ में राजपूतों की पत्तियां रही हैं| राजस्थानी से इनकी समानता है | दोनों बोलियों पर दरद, खास, किरात, और भोट आदि नाना जातियों की भाषाओं का प्रभाव मूलरूप से रहा है | उत्तरप्रदेश के अंतर्गत होने के कारण दोनों भूखंडों में खड़ी बोली हिंदी या कौरवी का प्रभाव भी बढ़ता रहा है | दोनों पहाड़ी बोलियाँ ओकारबहुला है |

        राजस्थानी की चार बोलियाँ जो आपस में घने रूप में जुड़ी हैं । इनकी सामान्य विशिष्टता ण और ड़ ध्वनियों में सुविदित है । ड़ा या ड़ी प्रत्यय बहुत व्यापक है, जैसे – संदेसड़ों , बापड़ो ।

      पश्चिमी हिन्दी की छह बोलियाँ है – तीन आकारबहुला (कौरवी, हरयाणी और दक्खिनी), और तीन ही ओकारबहुला (व्रजभाषा , कन्नौजी और बुन्देली )। छहों का एक वर्ग में रखे जाने का तात्पर्य स्पष्ट है की इनमें गहरा अन्तःसंबंध है । दो वर्गों में आ ओ का जो अंतर है वह प्रमुख है, जैसे – चल्या चल्यो, छोहरा छोहरो, मीठा मीठो । व्रजभाषा आदि की ओकाराबहुला उसे राजस्थानी बोलियों से भी जोड़ती है। बुन्देली में भविष्यत कालिक ग-रूप नहीं है जो अन्य पश्चिमी बोलियों में पाया जाता है । इसमें – ह रूप है जो बुन्देली को अवधि के साथ सम्बद्ध कर देता है । भौगौलिक दृष्टि से भी पश्चिमी हिन्दी बुन्देली और पूर्वी हिन्दी की अवधी की सीमाएं जुड़ी है । सीमावर्ती क्षेत्रों में दूर तक दोनों बोलियों का मिश्रण मिलता है । कन्नौजी को बहुत से विद्वान अलग बोली मानने को तैयार नहीं है । यह व्रजभाषा और अवधि का मिश्रित रूप है । कन्नौजी और अवधी में ऐ औ का उच्चारण अइ अऊ होता है; जैसे –अइसा, कउन । दोनों में कुछ परसर्गों की अद्भुत समानता है – कर्म क, का, को, करण-अपादान से ( कन्नौजी में सें सौं भी ), अधिकरण माँ, महँ ।  तिर्यक बहुवचन –न व्रजभाषा आदि अवधी आदि में समान है । इस प्रकार बुन्देली और कन्नौजी जो पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ हैं, अर्थात पूर्वी हिन्दी से जुड़ गई हैं ।

      पूर्वी हिन्दी की तीन बोलियों में परस्पर थोड़ा अंतर है । कुछ भाषाविज्ञानी बघेली को अवधी को ही उपबोली मानते हैं । जितनी समानता पूर्वी हिन्दी की बोलियों में है, उतनी किसी वर्ग की बोलियों में नहीं है । वास्तव में अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी का एक महाजनपद रहा है जिसे कोसल कहते थे ।

      अवधी बिहारी बोलियों में भोजपूरी के माध्यम से जा मिलती है । संज्ञा के तीन-तीन रूप लघु, गुरु और अतिरिक्त अवधी और सभी बिहारी बोलियों में समान है, जैसे- माली, मलिया, मलियवा, घोड़ा, घोड़वा, घोड़उवा । दोनों वर्गों में स्त्री प्रत्ययों में – इनि प्रमुख है, जैसे- मालिनी, लरिकिनि । परसर्गों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है । कर्ता के साथ ने परसर्ग नहीं लगता : जैसे- भो॰ हम देखलिन, ऊ कहिलिस, अवधी में हम देखिन, ऊ कहिस । पूर्वी हिन्दी और बिहारी हिन्दी की बोलियों में विशेषण प्राय: आकारान्त नहीं होते, जैसे- नीक, मीट, खोट । इसलिए विशेषण लिंगवचन कारक में अपरिवर्तित रहते हैं। संज्ञाओं का एकवचन रूप बहुवचन में नहीं बदलता; जैसे – लरिका गवा, लरिका गयेन । बिहारी बोलियाँ तीन है – भोजपूरी, मगही, मैथिली । मगही मध्यस्थ है, यह अन्य दोनों को जोड़ती है । इन बोलियों के संज्ञा रूप, सर्वनाम और क्रियारूप लगभग समान है । रचनात्मक प्रत्यय भी एक से है । सबसे बड़ी पहचान अ भी वृत्ताकार ध्वनि है जो थोड़ी बहुत बँगला से मिलती है ।

      निष्कर्ष यह है कि हिन्दी की सब बोलियाँ पास पड़ोस कि बोली से कई तत्वों में गूँथी होती है । पहाड़ी और मगही, अथवा मारवाड़ी और मैथिली में इतना भारी अंतर है कि इनके बोलने वाले एक दूसरे को नहीं समझ पाते तब उन्हें सामान्य हिन्दी जोड़ती है ।

      हिन्दी प्रदेश एक ऐसा भूखंड है जहाँ बोलियों के बीच में कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं है । इस कारण से सब बोलियाँ परस्पर जुड़ी हैं,

1.   गढ़वाली 2. कुमाउनी 3. हरयाणी 4. राजस्थानी 5. व्रजभाषा 6. बुन्देली 7. कन्नौजी 8. अवधी 9. बघेली 10. छत्तीसगढ़ी 11. भोजपुरी 12. मगही 13. मैथिली । 



शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

हिंदी भाषा एवं नागरी लिपि का मानकीकरण

लिपि न हो तो किसी भी भाषा का रूप स्थिर नहीं हो सकता | बोलचाल की भाषा में उच्चारण, व्याकरण और वाक्ययोजन में विविधता रहती है | ज्यों-ज्यों भाषा के लिखित रूप का विस्तार होता है, त्यों-त्यों उसमें एकरूपता का तकाज़ा बढ़ता जाता है| हिंदी के मानकीकरण में वर्तनी का मुद्दा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और इसका सीधा सम्बन्ध लिपि से है| देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता के कारण हमारी वर्तनीगत समस्याएँ अधिकांशतः सुलझ गई है | इसके लिए नियम निर्धारित हो सके हैं| व्याकरण के मानकीकरण में भी देवनागरी लिपि ने अपना योग दिया है| पहली बात यह है की व्याकरण प्रायः लिखित भाषा का होता है| व्याकरण के सारे नियम एक साथ लिपिबद्ध होकर सामने आ जाते हैं| उदाहरण स्वरुप पुलिंग से स्त्रीलिंग बनाने के लिए सभी प्रत्ययों को एक जगह लखकर समझ-समझा सकते हैं कि-नी, आनी, इया, इन, आदि स्त्री प्रत्यय हैं, जैसे मोरनी, नौकरानी, चिड़िया, धोबिन में | हम क्रिया की सारी कालरचना लिपिबद्ध करके एक पृष्ठ पर या ब्लैकबोर्ड पर दिखा सकते हैं| ऐसे में समझना और याद करना सुगम हो जाता है| फिर भी लिपिबद्ध कर लेने पर ही हम समय समय पर निरिक्षण कर सकते हैं कि किन व्याकरणिक कोटियों में मानक रूप स्थिर हो गए हैं और किन में शेष हैं| हमारे शब्दकोश भी तो लिपिबद्ध हैं । ऐसा न हो तो हम नहीं जान पाते कि शब्दभंडार के मानकीकरण पर खुला प्रकाश डाला गया है जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि इस भाषा के मानकीकरण पर खुला प्रकाश डाला गया है जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि इस भाषा के मानकीकरण का प्रश्न घनिष्ठता के साथ देवनागरी लिपि से जुड़ा हुआ है ।  


रविवार, अगस्त 07, 2011

अपभ्रंश, अवहट्ट एवं आरंभिक हिंदी का व्याकरणिक और प्रायोगिक रूप -

खड़ी बोली हिंदी के भाषिक और साहित्यिक विकास में जिन भाषाओँ और बोलियों का विशेष योगदान रहा है उनमे अपभ्रंश और अवहट्ट भाषाएँ भी है| हिंदी को अपभ्रंश और अवहट्ट से जो कुछ भी मिला उसका पूरा लेखा जोखा इन तीनों की भाषिक और साहित्यिक संपत्ति का तुलनात्मक विवेचन करने से प्राप्त होता है |

अपभ्रंश और अवहट्ट का व्याकरणिक रूप -

अपभ्रंश कुछ -कुछ और अवहट्ट बहुत कुछ वियोगात्मक भाषा बन रही थी, अर्थात विकारी शब्दों (संगे, सर्वनाम, विशेषण,और क्रिया) का रूपांतर संस्कृत की विभक्तियों से मुक्त होकर पर्सर्गों और स्वतंत्र शब्दों या शब्द्खंडों की सहायता से होने लगा था | इससे भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई | अपभ्रंश और अवहट्ट का सबसे बड़ा योगदान पर्सर्गों के विकास में है | सर्वनामों में हम और तुम काफी पुराने हैं | शेष सर्वनामों के रूप भी अपभ्रंश और अवहट्ट में संपन्न हो गए थे | अपभ्रंश मइं से अवहट्ट में मैं हो गया था | तुहुँ से तू प्राप्त हो गया था | बहुत से अपभ्रंश और अवहट्ट के सर्वनाम पूर्वी और पश्चिमी बोलियों को मिले | सबसे महत्वपूर्ण योगदान क्रिया की रचना में क्रिदंतीय रूपों का विकास था जो अपभ्रंश और अवहट्ट में हुआ | भविष्यत् काल के रूप इतर बोलियों को मिले ; अवहट्ट में, भले हीं छिटपुट, ग-रूप आने लगा था | इसी से कड़ी बोली को गा गे गी प्राप्त हुए | अपभ्रंश और अवहट्ट में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग भी ध्यातव्य है | इसी के आगे हिंदी में सकना,चुभना,आना,लाना,जाना,लेना,देना,उठाना,बैठना का अंतर क्रियाओं से योग करने पर संयुक्त क्रियाओं का विकास हुआ और उनमें नई अर्थवत्ता विकसित हुई | अपभ्रंश काल से तत्सम शब्दों का पुनरुज्जीवन, विदेशी शब्दावली का ग्रहण, देशी शब्दों का गठन द्रुत गति से बढ़ चला | प्राकृत तो संस्कृत की अनुगामिनी थी - तद्भव प्रधान | अपभ्रंश और अवहट्ट की उदारता ने हिंदी को अपना शब्द्भंदर भरने में भारी सहायता दी |

साहित्यिक योगदान

सिद्धों और नाथों की गीत परंपरा को संतों ने आगे बढ़ाया | सिद्धों के से नैतिक और धार्मिक आचरण सम्बन्धी उपदेश भी संत्काव्य के प्रमुख लक्ष्मण हैं | इस प्रकार हिंदी साहित्य के इतिहास में चारण काव्य और भक्तिकाल का सूफी काव्य, संतकाव्य, रामभक्ति काव्य और कृष्णभक्ति काव्य को प्रेरित करने में अपभ्रंश और अवहट्ट काव्य परम्परा का महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त रहा है| यदि उस पूर्ववर्ती काव्य में पाए जाने वाले नये-नये उपमानों, नायिकाओं के नख-शिख वर्णनों, नायकों के सौन्दर्य के चित्रण, छंद और अलंकार योजना को गहराई से देखा जाये तो स्पष्ट हो जायेगा की रीति काल के साहित्य तक उसका प्रभाव जारी रहा | ऐसा लगता है सन १८०० तक थोड़े अदल-बदल के साथ वैसी ही भाषा, वैसे ही काव्यरूप और अभिव्यक्ति के वैसे ही उपकरण काम में लाये जाते रहे | क्रान्ति आई तो खड़ी बोली के उदय के साथ |

अपभ्रंश और अवहट्ट में दोहा-चौपाई जैसे वार्णिक छंदों का भरपूर प्रयोग हुआ है | हिंदी के प्रबंध काव्यों-सूफियों की रचनाओं में और रामभक्तों के चरित-काव्यों-में इन्ही दो को अधिक अपनाया गया है| अपभ्रंश और अवहट्ट में चऊपई १५ मात्राओं का छंद था | हिंदी के कवियों ने इसमें एक मात्रा बढाकर चौपाई बना लिया | छप्पय छंद का रिवाज़ भी उत्तरवर्ती अपभ्रंश में चल पड़ा था | दोहा को हिंदी के मुक्तक काव्य के लिए अधिक उपयुक्त माना गया | कबीर, तुलसी, रहीम, वृन्द और विशेषता बिहारी ने इसका अत्यंत सफल प्रयोग किया |

अलंकार योजना में अपभ्रंश और अवहट्ट के कवियों ने लोक में प्रचलित नए-नए उपमान और प्रतीक लाकर एक अलग परंपरा की स्थापना की जिसका हिंदी के कवियों ने विशेष लाभ उठाया | कबीर जैसे लोकप्रिय कवियों
में इस तरह के प्रयोग अधिकता से मिलते हैं |

अरबी का प्रभाव फ़ारसी के द्वारा हिंदी पर पड़ा मगर सीधे नहीं | अरबी फ़ारसी में अनेक ध्वनिया हिंदी से भिन्न है, परन्तु उनमे पाँच ध्वनियाँ ऐसी है जिनका प्रयोग हिंदी लेखन में पाया जाता है, अर्थात, क़,ख़,ग़,ज़,फ़ |इनमे क़ का उच्चारण पूरी तरह अपनाया नहीं जा सका| खड़ी बोली हिंदी को अंग्रेजी की एक स्वर-ध्वनि और दो व्यंजन-ध्वनिया अपनानी पड़ी क्योंकि बहुत से ऐसे शब्द हिंदी हिंदी ने उधार में लिए है जिनमे ये ध्वनिया आती है | अंग्रेजी से अनुवाद करके सैंकड़ो-हजारो शब्द ज्ञान-विज्ञान और साहित्य में अपना रखे हैं | अंग्रेजी से सम्पर्क होने के बाद से हिंदी गद्य साहित्य के विकास में अभूतपूर्व प्रगति हुई है | गद्य के सभी विधाओं में बांगला साहित्य अग्रणी रहा |


आरंभिक हिंदी- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपना "हिंदी साहित्य का इतिहास " सिद्धो की वाणियों से शुरू किया है | सरहपा, कन्हापा आदि सिद्ध कवियों ने अपनी भाषा को जन से अधिक निकट रखा | इसमें हिंदी के रूप असंदिग्ध है| कुछ विद्वानों ने जैन कवि पुष्यदंत को हिंदी का आदि कवि माना है| पउम चरिउ के महाकवि स्वैम्भू ने अपनी भाषा को देशी भाषा कहा है | अवधी के प्रथम कवि मुल्ला दाऊद की भाषा को आरंभिक हिंदी नहीं कहा जा सकता, उनका रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी का अंतिम चरण माना गया | उनसे पहले अन्य बोलियों की साफ़ सुथरी रचनाएँ उपलब्ध है |

नाथ जोगियों की वाणी में आरंभिक हिंदी का रूप अधिक निखरा हुआ है| इसी परंपरा को बाद में जयदेव, नामदेव, त्रिलोचन,बेनी, सधना, कबीर आदि ने आगे चलाया |

इससे भी स्पष्ट और परिष्कृत खड़ी बोली का दक्खिनी रूप है जिसमें शरफुद्दीन बू-अली ने लिखा |

9 . शुद्ध खड़ी बोली (हिन्दवी की) के नमूने अमीर खुसरो की शायरी में प्राप्त होते है | खुसरो की भाषा का देशीपन देखिये |

10.खड़ी बोली में रोड़ा कवि की रचना "रौल बेलि" की खड़ी बोली कुछ पुरानी |

11. राजस्थान और उसके आस-पास हिंदी के इस काल में चार प्रकार की भाषा का प्रयोग होता रहा है | एक तो अपभ्रंश-मिश्रित पश्चिमी हिंदी जिसके नमूने स्वयंभू के पऊम चरिऊ में मिल सकते हैं, दूसरी डिंगल, तीसरी शुद्ध मरु भाषा (राजस्थानी) और चौथी पिंगल भाषा | राजस्थान इस युग में साहित्य और संस्कृति का एक मात्र केंद्र रह गया था | सारे उत्तरी भारत में पठान आक्रमणकारियों की मारकाट, वाही-तबाही मची थी | हिंदी के आदिकाल का अधिकतम साहित्य राजस्थान से ही प्राप्त हुआ है |

12. डिंगल को चारण वर्ग की भाषा कह सकते हैं |यह लोकप्रचलित भाषा नहीं थी | पिंगल एक व्यापक क्षेत्र की भाषा थी जो सरस और कोमल तो थी ही, शास्त्र-सम्मत और व्यवस्थित भी थी | यह ब्रजमंडल की भाषा नहीं थी |

आदिकाल की भाषा के ये तेरह रूप है जो प्रारंभिक या पुरानी हिंदी के आधार है| पं० चक्रधर शर्मा गुलेरी का मत सही जान पड़ता है की 11 वी शताब्दी की परवर्ती अपभ्रंश (अर्थात अवहट्ट) से पुरानी हिंदी का उदय माना जा सकता है| किन्तु, संक्रांति काल की सामग्री इतनी कम है की उससे किसी भाषा के ध्वनिगत और व्याकरणिक लक्षणों की पूरी-पूरी जानकारी नहीं मिल सकती |

       कोई भाषा एकदम कहीं से फूटकर नहीं निकाल पड़ती । उसके बीज पूर्ववर्ती भाषा में विद्यमान रहते हैं ।
            अवधि हो या चाहे खड़ी बोली और चाहे दक्खिनी किसी का एकभाषी ग्रंथ 1250 ई॰ से पहले का उपलब्ध नहीं है और यही तीन भाषाएँ ऐसी है जिनकी परंपरा आगे चली है । यही हिन्दी है । डिंगल या पिंगल में रचित किसी काव्य की भाषा प्रामाणिक नहीं मानी गई ।

            हिन्दी मध्य देश की सारी बोलियों का एक सामूहिक नाम है ।
स्वर :
1. आरंभिक हिन्दी में निम्नलिखित स्वर मिलते हैं –
अ आ   इ ई    उ ऊ    ए ऐ    ऑ ओ औ

2. सब शब्द स्वरांत होते हैं, व्यंजनांत नहीं ; जैसे- अऊसर के अंत में अ, दीसा, सोहंता, जुगति, पुंजु या किछु । इसे उकार बहुला भाषा कहा गया है । उदाहरण – अघडु, पापु, पिंडु, चलु ।

3. संज्ञा-विशेषण के अंत में उ पुल्लिंग की और इ स्त्रीलिंग शब्द की पहचान है ; जैसे- धर्मु, कारणु, पुंज, जुगति राति ।
4. निम्नलिखित शब्दों में स्वरगुच्छ उल्लेखनीय है –

मूआ, सूआ (ऊ आ ), फड़ाइ, पाइया (आ इ ), केउ (ए उ) कोइ (ओ इ ) , दोउ (ओ उ ) ।

5. स्वरों के हृस्वीकरण के उदाहरण –

जमाई (जमाइअ, सं ॰ जामातृक ) , दिवारी (सं॰ दीपावली), अनंद (सं॰ आनंद ) ।  

6. स्वरों के दीर्घीकरण  के उदाहरण -  

मानुख (सं॰ मनुष्य ), चीत ( सं चित्त ), मीत (सं॰ मित्र ) ।

व्यंजन :
1.      व्यंजनों की व्यवस्था इस प्रकार है –

क ख ग घ ड                                           च छ ज झ  ञ
ट ठ ड ढ ण ड़ ढ़                                     त थ द ध न
प फ ब भ म                                            य र ल व स ह
 
2.       तत्सम शब्दों में ष सुरक्षित है । ड़ ढ़ दो नए व्यंजन है जो सं ॰ ट ठ प्राकृत ड ढ से अवहट्ट में ही विकसित हो गए थे, परंतु सिद्धों की भाषा में और पश्चिमी हिन्दी के पूर्वरूपों में बहुधा मिलते हैं ।

3.       अनुनासिक व्यंजन में ड ञ स्वतंत्र नहीं हैं, ( अवहट्ट में स्वतंत्र थे ), संयोग में आते हैं, परंतु प्राय: इनके स्थान पर अनुस्वार मिलता है, जैसे-  गंगा, लंक, पुंजु, कुंजु । ण का पूर्वी हिन्दी में न है ; जैसे –पुन्नी (पुण्य), गुन (गुण) ।पश्चिमी हिन्दी में ण इतना अधिक है कि प्राय: न का भी ण कर दिया जा रहा है ; जैसे – जाणाऊं, सुजाण, तिण । मुख से मुह लघु से लहुक और फिर हलुक, कथा से कहा, मेघ से मेह, दधि से दहि, गंभीर से गहिर । कुछ इस प्रक्रिया के कारण और कुछ व्याकरणिक रूपों के कारण आदि हिन्दी हकार-बहुला लगती है ।

संयुक्त व्यंजन :

1. शब्द के बीच में आनेवाले संयुक्त व्यंजन द्वित्व हो गए थे । प्रारम्भिक हिन्दी में बहुत अधिक उदाहरण है, जैसे – दुज्जन( दुर्जन से ), दुट्ठ (दुष्ट), अब्भंतर (अभ्यंतर), अक्खर (अक्षर) , उच्छाह (उत्साह) ।  
      2. प्रारम्भिक हिन्दी की अपनी प्रवृत्ति यही है कि व्यंजन एक ही रह गया, अत: उससे पहले अक्षर का स्वर दीर्घ हो गया ।  
      3. क्ष का पूर्वी बोलियों में छ और पश्चिमी बोलियों में ख हो गया ; यथा – लक्ष्मण से लछमन, लखन, अक्षर से अच्छर , आखर ।
      4. तत्सम शब्दों का व्यवहार बढ़ते रहने के कारण, उनके व्यंजन चाहे सरल थे चाहे संयुक्त सब सुरक्षित हैं ; 
         जैसे –विप्र, कन्या, मस्तक, मोक्ष, चन्द्र, श्याम, स्वामी, आश्रम ।
      5. जिन  संयोगों में पहला अंग अनुनासिक व्यंजन था, वह संयुक्त तो नहीं रहा, केवल अनुनासिक व्यंजन ले स्थान पर अनुस्वार कर दिया गया, यथा – सं॰ पण्डित्त से पंडित , कुण्डल से कुंडल।, खम्भ से खंभ, लड्क से लंक, कञ्ज से कंज, सन्त से संत ।

व्याकरण :

आरंभिक हिन्दी कि वियोगात्मक प्रक्रिया बढ़ी है ।

1.      संज्ञा के परसर्ग –

कर्ता x कर्म x , कहं, कह, कौ , को, कूँ
करण-अपादान – सऊं , सौं , सै, से, तै, ते, सेती, हुत
संप्रदान – लागि,  लग्गि, तण , तई
संबंध – क, का, कै, की, कर, केर, केरा, केरी, केरे   
अधिकरण – में, मैं, मह, माँह, माँझ; पर , पै ।

      2.     निर्विभक्तिक या लुप्तविभक्तिक कारकीय प्रयोग –

इनमें न तो परसर्ग है न विभक्ति चिन्ह ; जैसे – (कर्ता ) चेरी धाई , चेरी धाई (बहुवचन ) (कर्म ) बासन फोरे , मान बढ़ावत, (करण ) बिरह तपाइ तपाइ , (अपादान ) तुहि देश निसारऊं, (संबंध) राम कहा सरि, (अधिकरण ) कंठ बैठि जो कहईं  भवानी ।

3.      सविभक्तिक प्रयोग –

हि ऐसा विभक्ति-चिन्ह है जो सभी कारकों के अर्थ देता है । यथा –
(कर्म) सतरूपहिं विलोकि, (करण) वज्रहि मारि उड़ाइ, (संप्रदान ) बरहि कन्या दे, (अपादान) राज गरबहि बोले नाहीं, (संबंध ) पंखहि तन सब पांख , (अधिकरण ) चरनोदक ले सिरहि चढ़ावा ।

वचन :

पुल्लिंग बहुवचन के लिए – ए और – न , जैसे – बेटे , बटन ।
स्त्रीलिंग बहुवचन के लिए – अन , न्ह , आँ; जैसे – सखियन , बीथिन्ह , कलोलै, अँखियाँ ।

लिंग :

प्राय: स्त्रीलिंग शब्द इकारांत है ; जैसे – आँखि, आगि , औरति ।
सर्वनाम :

उत्तम पुरुष – मैं की अपेक्षा हौं व्यापक है , बाद में मई, फिर मैं मुज्यु , मोंहि, मोर, मेरा मेरा ।
हम ; हमार , अम्हार , हमारो, म्हारो, हमारा, हमें, हमहि, अम्हणऊं

माध्यम पुरुष – तूँ , तुहूँ , तै ; तुहि , तोहि, तोर , तेरा, तेरो

अन्य पुरुष – सो, से , सेइ, ताहि

संकेतवाचक – वह,,; वाहि , ओह , तासु, ताहि, उस, 
वे, ते, उन्ह , उन , तिन

प्रश्नवाचक – को, कौन, कवन, कवण ; का, काहे , जिह

संबंधसूचक – जे, जो, जेइ ; जो, जिहि , जा, जिस, जिह

आनिश्चियवाचक – कोउ, कोई, काहु, किसी, किनहि

विशेषण: 
  
बहुत, बहुतै, थोरो । संख्यावाचक विशेषण स्पष्ट हो रहें है – एक, एकु, एक्क, दोउ, दुहु, दुइ, पहिला, दूसर । उकारांत , आकारांत विशेषण का स्त्रीलिंग रूप ईकारांत और पुल्लिंग बहुवचन एकारांत  हो जाता है , जैसे- गाढ़ी, पातली, साँवरी; तीखे, ऊँचे ।

क्रिया की कालरचना :

वर्तमान काल-
                                         एकव॰                              बहु॰
उत्तम पुरुष                    देखउ , देखौं                     देखहि देखै
मध्यम पुरुष                     देखहि, देखइ                   देखहु, देखौ
अन्य पुरुष                       देखहि, देखइ                    देखहि, देखइ, देखै ।                                 
 
भूतकाल- देखिया, देखे, देखैला (पूर्वी)
 
भविष्यत् काल-
उत्तम पुरुष                       देखिसि, देखिहऊं देखिस्यऊं, देखिहैं                                      
मध्यम पुरुष                      देखिसि, देखिहै                 देखिस्यऊं, देखिहौ, देखिहु
अन्य पुरुष                        देखिसइ, देखिहि               देखिस्यइं, देखिहैं, देखिहहिं  ।         
 
आज्ञार्थ – देखउ, देखहु, देखइ, देखहि, देखो ।
 
कृदंत- दसित , पढ़ंत, करंत; बलन्ती , चमकतु ।
 
सहायक क्रिया –
 
वर्तमान
उत्तम पुरुष                       आछौं , छऊं , हऊं , हूं      छूं, छहि, अहहों , हैं   
मध्यम पुरुष                     अछइं , छइ; आहि, है       अछउ, छउ; होहु, हौ
अन्य पुरुष                       आछ, अछ; अहै, हइ,        हइ आछहि, छि: अहहीं, हैं 
 
भूत हो , हुतो , हतो, भा, भयो, भवा; हुआ, हुयउ, हते, हुते, थे, भए; हुयउ
 
भविष्यत्
उत्तम पुरुष                       हाइहऊँ, ह् वै  , हौं                       ह् वैहौं   
मध्यम पुरुष                      होइइ, ह्वै, है                                 ह् वैहौ
अन्य पुरुष                        होइहि, होब, होइगो                      ह् वैहों, होहिगे ।
 
संज्ञार्थक क्रिया – देखना, देखनो, देखनौ, देखिबो
पूर्वकालिक क्रिया- तपाइ (तपाकर) , लगाइ (लगाकर), देखि करि , देखिकै, आइ, खाइ, खाय, देखि के ।
प्रेरणार्थक क्रिया- उतारइ, जलावइ
कर्मवाच्य- कही जइ , कहीजै
संयुक्त क्रियाएँ- कहे जात हैं ; चलत न पाए, देखौ चाहत , सुनावन लागै , चितवन आहिं ।

अव्यय:

क्रिया विशेषण – अजहूँ, आजु, जब लगि , कब, कदे, पुनि , इहां, अइस, कहाँ, कित, अइस, जस, मति, बिनु ।

समुच्चयबोधक: अउ,, अरु, अवर, अउर, के, कि, जउ ।

तत्सम और तद्भव के कुछ उदाहरण- आअत (आयत) , इबराहिम, इलाम (इनाम), खोदलम्म (खुदाए आलम), दोजक (नरक), जंग, दरबार, फौज, लशकर, दीदार, सहनाई , सिकार ।

देशज शब्दों के उदाहरण – गुंडा, बेटा, गुदड़ी , चूड़ा, घाघरा, घनघन , घहराना, ठमकना ।
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खड़ी बोली का विकास और नागरी लिपि १९वी शताब्दी के दौरान -

नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के उदय (सन १ हज़ार इस्वी के आस-पास) के साथ ही हिंदी का आरम्भ माना जा सकता है| १४ वी शताब्दी तक अपभ्रंश और अवहट्ट भाषाओँ की निरंतर प्रधानता रही है फिर भी तत्कालीन साहित्यिक भाषा में लोकभाषाओं के प्रयोग अवश्य मिल जाते हैं | शिलालेखों और ताम्रपत्रों में, सिद्धों और नाथों की बानियों में,जैन कवियों की रचनाओ में, राजस्थान के वात और ख्यातों में, चारणों के चरित काव्यों में, स्वयम्भुदेव ,अब्दुर्रहमान, और विद्यापति आदि कवियों के काव्य में खड़ी बोली के नमूने प्राप्त होते है | इस खड़ी बोली में कई तरह के सम्मिश्रण है | ऐसी ही समिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग नामदेव, त्रिलोचन, सधना,कबीर आदि के सधुक्कड़ी भाषा में हुआ है | शुद्ध खड़ी (हिन्दवी) बोली के पुराने नमूने शरफुद्दीन, अमीरखुसरो और बंदा निवाज़ गैलुदराज़ की रचनाओ में मिलते हैं | दक्षिण के कवियों और गद्यकारों ने खड़ी बोली में लिखा | महाराष्ट्र के कई संतों ने खड़ी बोली हिंदी को अपने प्रचार का माध्यम चुना था | समर्थ गुरु रामदास और उनके शिष्य देवदास तथा शिष्य दयाबाई की अनेक रचनाएँ खड़ी बोली हिंदी में उपलब्ध है | उत्तरी भारत में गंग,भट्ट, जटमल,प्राणनाथ, आदि लेखकों, ने इसको अपनी कृतियों का माध्यम बनाया | किन्तु कोई परंपरा नहीं बनी | खड़ी बोली प्रदेश में कोई सांस्कृतिक या धार्मिक केंद्र न होने के कारण और राजधानी के कुछ काल के लिए आगरा बदल जाने के कारण खड़ी बोली साहित्य की धरा क्षीण हो गई और फिर लुप्त ही हो गई , अट्ठारवीं शती के अंत तक ब्रजभाषा का राज्य रहा |

खड़ी बोली का पुनरुत्थान-
खड़ी बोली साहित्यिक भाषा की स्वतंत्र परंपरा उन्नीसवीं शताब्दी में ही विकसित हुई |

इसके पुनरुत्थान के कई कारण थे -
१) ब्रजभाषा का युग समाप्त हो रहा था | काव्य में इसका प्रयोग चलता तो रहा परन्तु उसमें कोई जान न रह गई थी | प्रायःकवि ब्रजमंडल के बाहर के थे | चलती भाषा से इनका कोई संपर्क न था | इनकी भाषा में क्षेत्रीय शब्द,क्रियारूप और वाक्ययोजना अन्य बोलियों से लिए गए थे | ब्रज भाषा ह्रासोन्मुख थी |
२) ब्रज भाषा का अभिव्यक्ति क्षेत्र अत्यंत सीमित और संकुचित था -श्रृंगार ही श्रृंगार के कोमल मधुर भाव |
३) ब्रजभाषा में गद्य साहित्य की बहुत कमी रही है | इसी समय खड़ी बोली की उर्दू शैली में और दक्खिनी हिंदी में काफी गद्य रचनाएँ प्रकाश में आने लगी | और खड़ी बोली को अवसर मिल गया |
४) प्रिंटिंग प्रेस स्थापना ने गद्य साहित्य को पनपने में उत्साहित किया | खड़ी बोली हिंदी बड़े वेग और व्यापक ढंग से बढ़ चली |
५) यह काल अंग्रेजों का काल था और उन्होंने खड़ी बोली को हीं प्रोत्साहित किया | नवागंतुक प्रशासकों को हिंदी की शिक्षा देने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई जिसके प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट थे | उनका मानना था की खड़ी बोली भारत में समझे जानेवाली भाषा है |
६) खड़ी बोली के उत्थान में मिशनरियों का योगदान भी रहा | इससे बाइबिल का प्रचार करने के लिए उसका अनुदित (हिंदी में) रूप उपलब्ध करवाया गया |
७) इससे प्रचारकों की प्रतिक्रिया में भारतीय जनता की चेतना को जगाने और उनमे उत्साह भरने के लिए आर्य समाज (प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती), ब्रह्मा समाज (संस्थापक राजा राममोहन राय ), और हिन्दू धर्म सभा (प्रवर्तक श्रद्धाराम फिल्लौरी ) की स्थापना हुई, जिन्होंने अपना-अपना प्रचारात्मक साहित्य खड़ी बोली में प्रसारित किया |
८) स्कूलों के लिए जो तरह तरह के पुस्तकें लिखी गई वे खड़ी बोली में लिखी गई |

साहित्यिक खड़ी बोली का विकास-

साहित्यिक खड़ी बोली के विकास की दिशाएँ उन्नीसवी शती के दो खण्डों में देखी जा सकती है -१) पूर्व हरिश्चंद्र काल और २) हरिश्चंद्र काल में |
पूर्व हरिश्चंद्र युग - १७९९ में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना कलकत्ता में हुई | इसके आचर्य जॉन गिलक्रिस्ट ने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया | ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासकों को हिंदी सिखाने के लिए उन्होंने एक व्याकरण और एक शब्दकोश का निर्माण किया | वे इस भाषा को हिन्दुस्तानी कहना ज्यादा उचित समझते थे | उनकी हिंदी लिखी तो जाती थी देवनागरी अक्षरों में परन्तु उसमे उर्दू के प्रयोग बहुलता से किये जाते थे |
गिलक्रिस्ट की अध्यक्षता में अनेक अनुवाद और मौलिक रचनाएँ प्रकाश में आई | इस कार्य में उनके चार सहायक थे - इंशा उल्लाह खाँ, लल्लू लाल, सदल मिश्र और सदासुख लाल | इनके योगदान का मूल्यांकन अत्यंत महत्वपूर्ण है | उनका संक्षिप्त विवरण निम्न रूप में है -
इंशा उल्लाह खाँ- इनकी रचना 'रानी केतकी की कहानी' ठेठ बोलचाल की भाषा में लिखी गई | उन्होंने ध्यान रखा की हिंदी को छुट किसी बाहर की बोली का पुट न मिले | वास्तव में इंशा ने 'हिन्दुस्तानी' रूप की स्थापना करनी चाही |
लल्लू लाल - इनकी १४ रचनाएँ बताई जाती है | उनमे कुछ अनुवाद है | 'प्रेम सागर' उनकी प्रसिद्द कृति है | इनकी रचनाओ में गद्य के पदबंधों में लयात्मकता और तुकबंदी, अलंकारों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा का श्रृंगार, नाना बोलियों का सम्मिश्रण और दक्खिनी हिंदी का प्रयोग | उन्होंने प्रायः विदेशी शब्दों का वहिष्कार किया | कुल मिलकर लल्लू लाल की भाषा खड़ी बोली मिश्रित थी |


सदल मिश्र- उनकी तीन कृतियाँ मशहूर हुई -नासिकेतोपाख्यान, अध्यात्म रामायण और रामचरित | इसके आधार पर यह कहा जा सकता है की उनकी शैली अपने ढंग की थी | वे बिहार के रहने वाले थे इसलिए उनकी भाषा में पूर्वी प्रयोग ज्यादा थी | कुछ पदों में ऐसा लगता है की मानो लेखक खड़ी बोली के प्रयोगों को सिखा रहे हो |
सदासुख लाल- वे दिल्ली के रहने वाले कायस्थ परिवार से और उर्दू के एक अच्छे लेखक और कवी थे, तो भी उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को अपनाया जिसमे पंडिताऊपन और पूर्व पश्चिम की बोलियों का सम्मिश्रण था फिर भी अन्य लेखकों की तुलना में उनकी भाषा मानक हिंदी के अधिक निकट आने लगी थी | उनकी प्रसिद्ध रचना 'सुखसागर' थी | निष्कर्षतः कह सकते है की फोर्ट विलियम कालेज के इन चार लेखकों ने खड़ी बोली के साहित्यिक क्षेत्र का विस्तार अवश्य किया किन्तु वे भाषा का कोई व्यावहारिक स्वरुप उपस्थित नहीं कर सके |
पत्र-पत्रिकाएँ - भार्तेंदुपूर्व काल में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा | हिंदी का सबसे पहला पत्र 'उदन्त-मार्तंड १८२६ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ , लेकिन थोड़े समय बाद लुप्त हो गया | १८२६ में कलकत्ता से 'बंग-दूत' निकला जिसे सरकार ने १८२९ में बंद कर दिया | राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद का 'बनारस अख़बार' १८४४ से छपने लगा | इसकी भाषा हिन्दुस्तानी थी | इसकी उर्दू शैली के विरोध में 'सुधार' प्रकाश में आया | १८५४ में कलकत्ता में 'समाचार सुधा वर्षण' नाम का दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ | पंजाब से नवीनचंद्र राय ने 'ज्ञान प्रकाशिनी' पत्रिका निकाली |
इन पत्र-पत्रिकाओं ने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया | इनमे भाषा का ठेठ,प्रचलित और मिश्रित रूप हीं चलता रहा |
१९ वी शताब्दी के उत्तरार्ध का आरम्भ- १९ वी शताब्दी के ५० वर्ष बीतने के बाद राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह ने स्वतंत्र रूप से दो नै शैलियों का विकास किया | राजा शिवप्रसाद सिंह की भाषा में पहले तो हिंदीपन ही अधिक था | परन्तु जब से वे शिक्क्षा विभाग के अधिकारी हुए , चाहे जिस कारण से हो,धीरे-धीरे उनकी भाषा में ऊर्दुपन बढ़ता गया | उनके द्वारा लिखी कई पुस्तकों से खड़ी बोली का प्रवेश हुआ और बच्चों को शुद्ध भाषा सिखाने की चिंता में हिंदी का स्वरुप निखरा |
ईसाई मिशनरी अपना धर्मप्रचार जनता की भाषाओं में कर रहे थे | उन्होंने देख लिया की इसके लिए उत्तर भारत में न तो ब्रजभाषा से काम चलेगा न उर्दू से | उन्होंने सरल खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाया | उन्होंने जनता में नयी संस्कार भरने के लिए शिक्षा और पुस्तक प्रकाशन की योजनाएँ बनाई |
पाठ्य-पुस्तकों के अलावा इन्होने धर्म सम्बन्धी तथा समाज सुधार सम्बन्धी अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकें छपवाकर जनता में वितरित की | सन १८२६ इसवी में 'धर्म पुस्तक ' नाम से ओल्ड टेस्टामेंट का खड़ी बोली में अनुवाद प्रकाशित हुआ |
हरिश्चंद्र युग- भारतेंदु हरिश्चंद्र १८७३ में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' के प्रकाशन के साथ खड़ी बोली का व्यावहारिक रूप लेकर आये | उन्होंने कई नाटक, कहानियाँ, निबंध आदि रचनाएँ की | नाटकों में सत्य हरिश्चंद्र, चन्द्रावली, नीलदेवी, भारत-दुर्दशा, प्रेम-योगिनी,विषस्य विषमौषधम, वैदिकी हिंसा न हिंसा भवति आदि अनेक मौलिक और अनुदित है | इनमे पद्य की भाषा तो ब्रजभाषा है और गद्य में ब्रजभाषा मिश्रित खड़ी बोली है जो धीरे-धीरे व्यावहारिक खड़ी बोली बनती गई | खड़ी बोली के विकास में उनका वास्तविक योगदान हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चन्द्रिका और बालबोधिनी पत्रिकाओं के निबंधों में मिलता है | इन सब में गद्य की भाषा खड़ी बोली रही है |